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केसे कहूं बेवफा उसे

केसे कहूं बेवफा उसे

केसे कहूं बेवफा उसे, उसके भी अब 100 फ़र्ज़ है। कोई हकीम भी छुता नहीं, मोहब्बत ये कैसा दर्द है। गुमसुम रहने की आदत ना थी खैर मेरी उदासी पर उसका का कर्ज है। मौसम का कोई हाल बताओ यार, उसके जाने बाद से क्यों राते सर्द हैं। उसको मिल गई मंजिल अपनी, मुझे क्यों इस बात से भी हर्ज है।

अकेले रहना बड़ी ज़िम्मेदारी है।

अकेले रहना बड़ी ज़िम्मेदारी है।

लोगो की तो दो पल की यारी है,अकेले रहना बड़ी ज़िम्मेदारी है। दिन भर लोगो की भीड़ हो भले,रात तो सबने अकेले गुजारी है। खुशी तो बांट लेते हैं लोग सभी,इस गम पे सिर्फ हक हमारी है। तुम करलो एश ओ आराम सारे,हम पे तो अभी काम भारी है। हम फिर अकेले ही घर लौट आए,खैर ये कौन सा पहली बारी है।

एक खाली कमरा

एक खाली कमरा

एक खाली कमरा है, बस कुछ गमो की जरूरत है। एक चादर है एक तकिया है, बस नींद इन आंखो की जरूरत है। जो है वो तो काफी पुराने है जीने के लिए नए ज़ख्मों की जरूरत है। दर्द बया तो आंखें बेहतर करती है, आखिर किसे इन लफ्जो कि जरूरत है। अकेले रहना सीख लिया है अब मैने, मुझे तो नहीं अब इन लोगो की जरूरत है। सांस लेकर तो बस ज़िंदा नहीं रहा जाता जीने के लिए कुछ…

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दर्द में यूं ना हमें खुद से दफा कीजिए

दर्द में यूं ना हमें खुद से दफा कीजिए

दर्द में यूं ना हमें खुद से दफा कीजिए हमें मर्ज है तो उस मर्ज की दवा कीजिए वफा करके भी फिर ये कैसी बेरुखी इससे बेहतर तो आप फिर दगा कीजिए। सिर्फ आंसू ही तो नहीं दर्द की निशानी मेरी चीख सुननी हो तो ये आंखे पढ़ा कीजिए। तनहा सा यू मुझे छोड़ जाने के बाद, मुझसे ना अब कोई उम्मीद ए वफा कीजिए

कोई समझ ना पाया

कोई समझ ना पाया

कोई समझ ना पाया किस फिराक में जीते हैंमिलते है सबसे तो तपाक से मिलते हैं। एक ही तो तमन्ना थी कि उसके साथ एक घर होअब वो तम्मना और घर दोनों साथ में जलते हैं। एक ज़माना था लोगो से फुरसत नहीं थीएक ज़माना है अब बस अकेले चलते हैं। वो देखते रहते हैं अब मुस्तकबिल के सपनेहम अब भी गुज़रे लम्हों में टहलते हैं। चली गई महक मेरे कपड़ों पर से उसकीचलो हम भी अब ये पुराने कपड़े…

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एक दिया है जलता सांझ पहर मेरे घर में

एक दिया है जलता सांझ पहर मेरे घर में

एक दिया है जलता सांझ पहर मेरे घर में, रहता है एक सुना शहर मेरे घर में, डूबा सा रहता हूं अपने ही बिस्तर में, यादों की बहती है एक नहर मेरे घर में, दरवाजा उम्मीदों का खुला रहता है दिनभर, ना जाने कब आएगी खुशी की लहर मेरे घर में, अगर इंतेज़ार करना मुहाल हो जाए किसी दिन, है रखी एक शीशी जहर मेरे घर में, इतनी भी मौत से दोस्ती अच्छी नहीं अक्षय, ए ज़िंदगी तू भी तो…

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जिस गली से जी घबराए

जिस गली से जी घबराए

जिस गली से जी घबराए, उस गली में आखिर जाएं क्यों? ज़ख्म ही मिलेंगे अगर आखिर में, तो फिर से ये मोहब्बत आजमाएं क्यों? जाते वक़्त उसने टोका भी नहीं, फिर मुड़के उसके घर अब जाएं क्यों? वो शमा हम ही को प्यारी थी फिर, उससे जल जाने पर पछताए क्यों? वो भी तो है गैरो की महफिल में फिर, हम ही अकेलापन अपनाएं क्यों. वो जर्जर घर आखिर अब टूट गया, फिर से मेहनत करके उसे हम बनाएं क्यों?…

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